Friday, October 31, 2025

खामोश अजनबी!

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सिर्फ जहां में  दुश्मन ही बचे हैं मेरे; अब और क्या देखना बाकी है?
आ जाओ दगा करने को; एक दोस्त की कमी बाकी है।

ज़माना बदला तो है; लोग फिर बालों की चांदी का एहतराम करते हैं।
तुम भी दोस्ती निभाओ, आओ, मिल के मुझे  शर्मसार करते हैं!

रूठा था मैं किसी से किसी ज़माने में; कोई किसी को भी ऐसे मनाता है क्या?
हंस लो;जिस जन्म मिलोगे पूछेंगे ज़रूर, कोई किसी को उम्र भर रुलाता है क्या?

तुमसे तुम्हारी खबर लेनी थी; पर इतना हक मेरा बनता नहीं है।
 तुम मुझ को कभी याद भी न करना; वैसे तुमको ये  जचता नहीं है!

तुमने कहा था हम अजनबी हैं; जाओ मुंह दिखाना भी मत!
तुम्हीं छिपते फ़िरे हो! देखो आ सको तो; वरना सामने आना ही मत!

ऐसी लंबी तुम्हारी जिंदगी का मैं भूला हुआ , मामूली  सा लम्हा हूं। 
आ गए तो मजबूरन याद करना पड़ेगा - कौन हूं; क्या हूं; किसका हूं?

ये होता तो वो होता; ऐसा करते;  वैसा न करते तो कैसा रहता?
जो होता इससे बहुत अच्छा होता। अफसोस! तुम भरोसा रखती तो बढ़िया रहता!

किसी तजुर्बेकार को पूछना; दोनों में ज्यादातर बेवफा कौन होता है?
फौरन बताएगा,"कोई नहीं होता"; बस ये कि लड़का गरीब होता है!

चैन मुझे नहीं,क्यों दिख रहे हैं आंसू तुम्हारे? बस तुम्हे मुस्कुराता  देखना चाहता हूँ मैं!
फिर तुम सोती भी कम कम हो; खुद  खयाल रखो
! न ये हक दिया मुझे, न ही हूं कहीं भी मैं!

मन भारी है; सिवा दुआ के कुछ बचा नहीं, न लेने और न देने को।
अजनबियों सी उम्र कुछ बची है; खामोशी से रोने और  तड़पने को!












 

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