Sunday, February 21, 2016

ओ रे कन्हैया , किसको कहेगा तू मैया ?

यूँ  तो चिठ्ठी पत्री गए ज़माने की बात हो गयी ; इधर कुछ दिनों से देखता हूँ कि लोग फिर लिखने लगे हैं।  कोई राष्ट्रपति जी को लिख  रहा है; कोई प्रधान मंत्री को  तो कोई संपादक महोदय को। विषय वही है ; ज ने वि , और क्या ? सो मै उसी विश्वविद्यालय के छात्रों को यह पत्र प्रेषित करता हूँ। जिस तलक भी पहुँचे ! कल ये शिकायत अपने से न होगी कि  मै कुछ कह सुन सकता था , किया नहीं। मेरा निजी  स्वार्थ  ही है , बस। 

आज   यकीं नहीं  होता  पर अपने बड़े ही प्रिय  चचा से प्रेरणा पा के कुछ दशकों पहले तक माओ की लाल किताब अपनी जेब में रखे घूमता था। उम्र उतनी ही होगी जो आपकी आज है। चचा ने ही दी थी। चचा  अब नहीं पर  किताब रह गयी। उसी किताब से नौजवानों के लिए एक उद्धरण है," दुनिया तुम्हारी है ; हमारी भी।   अंततः तुम्हारी ही है।  तुम नौजवान अपने जीवन के स्वर्णिम काल  में हो , जैसे सुबह का सूरज ! हमारी सारी  उम्मीदें तुम से हैं"। ऐसा  माओ  ने मास्को में 1957 में चीनी विद्यार्थियों से कहा था।  

अब इसे जीवन की विडंबना ही कहा जायेगा कि उसी सोवियत रूस के अपने लम्बे प्रवास के दौरान मुझे अनुभव हुआ कि वामपंथ एक बहुत ही रुमानी विचारधारा  है ; यथार्थ से बहुत परे ! सो इस सब से बहुत पहले बचपन में जिस पार्क में खेलने जाया करते थे वहां शाखा लगा करती थी।  5 से 6 पिट्ठू गरम और 6 से 7 शाखा।  वही  आर  एस एस वाली! बहुत प्रवचन सुने हैं मैंने।  लाल भी , केसरी भी। कभी दाढ़ी भी रखता था और दोस्तों के साथ हरे में भी घुस जाता था । जासूस को कोई पहचाने क्यों कर । 

कहने का भाव यह है कि  मै एक बौद्धिक जिप्सी हूँ।आम बोल चाल  में थाली का बैंगन।  आपको कोई प्रवचन नहीं दूंगा।  यह नहीं कहूँगा की यह मानो , वह न मानो। जो भाये मानो , जितना भाये उतना मानो ; चाहो तो कुछ भी न मानो। बस प्रश्न पूछने की आदत डाल  लो।  व्यक्ति को अंतिम दिन तक जिज्ञासु बने रहना चाहिए।  जितना हम जानते हैं ; ज्ञान का विस्तार उससे कही आगे तक है। 

कॉलेज की एक असाइनमेंट  में मेरे 10 में से 7 आये। अपने को मै  उस विषय का तोप मानता  था। शायद था भी। मेरी दुनिया जैसे खत्म हो गयी। जब तक अपने प्रोफेसर से हफ्ते भर बहस मुहासबा करके उसको 8 नहीं कर लिया दिन का चैन और रातों की नींद न आयी। आज बस अपने पे हँसी आती है। उम्र ही कुछ ऐसी होती है।  बड़ी बड़ी बातें जूते की नोक पे और इक जरा सी बात पे जान लुटा  दो। यह शायद रहती दुनिया तक न बदलेगा। बस उम्मीद करता हूँ कि आप मुझ से अधिक समझ दिखाएंगे। 

इस सारे प्रकरण में एक अच्छी बात ये हुई कि जो महानुभाव लाल किले पे लाल निशान लगाने को दिन रात एक किये रहते हैं वह भी तिरंगा पकड़ लिये! मजबूरी में ही सही। दूसरी तरफ भी बस तिरंगे की ही चर्चा  गरम  है। सो आप भी पकड़ लो। दुनिया बदल जाएगी, वक़्त बदल जायेगा ; और सरकारों का तो वैसे ही कोई ठिकाना नहीं। आप लोग जीवन की एक एक सीढ़ी चढ़ते जाओगे।  कुछ इधर जाओगे , कुछ उधर जाओगे।  नयी दिशाएँ , नए क्षितिज , नयी सोच और नयी जिम्मेदारियां होंगी। सफलता आपके कदम चूमेगी।  नहीं बदलेगा तो यह कि आप की पहचान विश्व भर में फिर भी भारत से ही होगी। किसी पार्टी , किसी विचार धारा , किसी सरकार और किसी कॉलेज से नहीं।मै  विदेश में रहता हूँ ; निजी अनुभव से बता रहा रहा हूँ। भारत टूटा ... तो आपका।  भारत बर्बाद ...तो आपका। जान लो ! 

बीते  ज़माने में मेरी एक मित्र ने मुझे उलाहना दिया जो   मुझे  निहायत  बुरा और खुदगर्ज़ लगा। आज शायद आपको भी लगे।  वह मित्र अब जाने कहाँ है पर  उसकी बात मेरे पास ही रह गयी है। अपना समझ के आपको बता देता हूँ। समय की कसौटी पर खरी उतरी है। " दुनिया  का भला करने निकले तो हो  पहले अपना तो भला  करो"।   कुछ बनोगे तभी न समाज  और व्यवस्था को बदलने की ताकत पाओगे। शिक्षित होने और मत शिक्षित होने के फ़र्क़ को जानो  भाई मारी सारी  उम्मीदें तुम से हैं।

प्रश्न करना न भूलना ; खास तौर पे अपने से।

Monday, January 25, 2016

निस्का बोमो , निस्का बोमो ,बूचा मेथ !

दादा हमारे डाक बाबू थे, ब्रिटिश शासनकाल  में। यह समाज में रुतबे वाला पद था। उन दिनों लद्दाख में तैनाती थी।  दादी को लेकिन पास पड़ोस की महिलाओं की खुसर पुसर से परेशानी थी । निस्का बोमो , निस्का बोमो ,बूचा  मेथ ! यानि लड़कियां ही लड़कियां हैं , लड़का कोई नहीं। सो जब पिता जी का जनम हुआ तो लाडले बच्चे का नाम रखा गया जवाहर लाल । दादी तो दादी  हमारी बुआओं ने भी इस भाई को लाड  लडाने  में कोई कमी न छोड़ी। 70  साल पहले घर का खाना पसंद न आने पे इस बच्चे के लिए होटल से पसंद का खाना मंगवाया जाता रहा  !  अंग्रेज गए  देश आजाद हुआ। बंटवारे के दौरान गाँव का घर जला दिया गया। किसी तरह खाली हाथ लुट  पिट कर शहर पहुंचे और एक रिश्तेदार के किराये के मकान  में शरण ली।

जैसे तैसे पढ़ाई की। कश्मीर में ढंग का काम न मिलना था न मिला। इस दौरान प्यार , शादी ,बच्चा वगेरह सब हो गया। सो एक दिन 8 रुपय्ये  जेब  में डाले दिल्ली चले आये! बहन  के पास। एक समाचार एजेंसी में मामूली सा काम मिला। अब कमरे का किराया और पीछे घर को खर्चे के लिए पैसा भेजने के बाद दो वक़्त की रोटी खाने लायक नहीं बचता  था।  सस्ता जमाना था ;रोटी के साथ दाल  मुफ्त मिला करती थी। सो दो रोटी का पैसा चुकाते   रहे और फ्री दाल से पेट भरते रहे। तीसरी खाते तो शाम का क्या होता?

समय के साथ कुछ चीज़ें बदली।  नहीं बदला तो यह की हम पिताजी को दुनियादार नहीं बना सके।  पत्नी के ताने बेकार ; बच्चों का रूठना बेकार; दोस्तों का रस्ता दिखाना   बेकार; रिश्तेदारों का उलाहना बेकार।  अरे भई अमुक आदमी फलां पोस्ट  आपसे पहले कैसे पा गया ? देखिये उसको सरकारी घर मिला ; आप कहाँ रह गए ? अच्छा हम लोग कार  क्यों नहीं ले सकते? मंत्री जी से नहीं कहला सकते तो इतने साल पत्रकारिता का क्या फायदा?  हे भगवन यह सीधा  आदमी हमारे ही पल्ले पड़ना था?

सालो हमारे घर में वृहत परिवार के लोग आते रहे।  कोई शिक्षा  के लिए , कोई नौकरी के लिए , कोई मुसीबत का मारा तो कोई वैसे ही सर्दियों में दिल्ली घूमने के लिए। कोई 6  दिन रहा कोई 6 साल।  हम चाहे मन में कोसते रहे ,पर पिता के चेहरे  पे कोई शिकन न आई। हमारे घर का नाम रखा था "जवाहर  ढाबा". आज भी जब हम दो तीन लोग ही खाने की टेबल होते हैं तो बड़ा अजीब लगता है।

किसी आदमी  का मूल्यांकन उसकी वाणी , विचार और कर्म से करें।  उसके पद , पैसे और पुरस्कार से नहीं। फिर भी अच्छा लगा एक शरीफ आदमी का यूँ  सम्मान  पाना। आज उन्हें मिला पदम श्री सिर्फ उनका नहीं है।
जीवन में जितने लोगों ने उनका साथ पाया उन सबका भी है। हर उस सीधे ,और भोले इंसान का भी है जो जोड़ तोड़ नहीं जानता।  जो जुगाड़ नहीं बिठा पाता;बस अपना कर्म अपनी शक्ति अनुसार करता रहता है

मै थोड़ी दृष्टता तो कर रहा हूँ पर जानता  हूँ कि मेरे पिता  बुरा नहीं मनाएंगे। सो यह सम्मान  हमारे परिवार की परम्पराओं के अनुसार आप सब के साथ साँझा कर रहा हूँ. चाहें तो आप भी आगे हर  भले मानुस के साथ साँझा  कर लें।

लोग झूठ बोलते हैं; सीधी  ऊँगली से भी घी निकलता है। आप सबको गणतंत्र दिवस की  बधाई !  
 












Friday, January 8, 2016

आम और खास का सफर !

 
अच्छा  शादी हो जाये और कुछ देर चले भी तो बाल  बच्चे हो ही जाते हैं। इस का फायदा बहुत है।  आदमी को कई बातों की आदत पड़ जाती है।  दिल भी  पक्का हो जाता है। दुःख भी नहीं होता।  मालूम है कि भाई तेरी कोई नहीं सुनेगा ! जिसको जो करना है वही करेगा।  पर इस वजह से कोई चुप रहता हो ऐसा कम ही देखा  है । इंसान  नक्कार खाने में तूती बजाने  से बाज़   नहीं रहता । मै  क्या  किसी से अलग  हूँ ?

सो एक सलाह केजरीवाल जी को बिना मांगे दे देता हूँ।  सम - विषम  पे अपनी पीठ थपथाने से पहले और अपनी तस्वीरों का अख़बारों में  दीदार करने  के बाद ,  अपना छोटा मोटा सामान उठाएं और अपने  कौशांबी वाले    घर में अगले 15  दिन रहें।  लाव लश्कर के बिना। वह पहले की वैगन आर ( अगर कही हो तो ) से सम - विषम का ध्यान रखते हुए दफ्तर आयें ।  कौशाम्बी स्टेशन से  मेट्रो भी पकड़ें।  फिर देखें कि  आम आदमी को किस तरह की समस्या से दो चार होना  पड़ता है और कहाँ पहुँचने में कितना समय  लगता है। लगे   हाथों  रास्ते में आम आदमी आपको सच  सच इस कार्यक्रम की औकात बताएँगे। ये कर  सकें तो ज्यादा अच्छी तरह समझ लेंगे कि सार्वजनिक परिवहन को दुरुस्त  किये बिना और उद्योग जनित प्रदूषण पे नकेल कसे  बगैर प्रदूषण की समस्या इस तरह  के सजावटी कार्यक्रम से काबू में न आएगी। हाँ इसमें काम बहुत है. वोट बैंक की राजनीती भी नहीं हो सकेगी. और ऊपर से चुनाव से पहले काम खत्म हो न हो।  ऊपर से पंजाब का चुनाव भी आ गया।  तो वहां दिखने सुनाने को भी कुछ चाहिए !

दरबारी विदूषक की तुकबंदी  तथा  दाहिने हाथ के साइकिल पे फोटो छपवाने से बात नहीं बनती. गर आप ख़ास तरह के आम  न हो गए हों  तो है ; वरना हमारी वैसे ही कोई नहीं सुनता।  आप भी न सुने !